Repeated Uttar Pradesh Why PM Modi? बार-बार उत्तर प्रदेश क्यों आ रहे हैं पीएम मोदी?

बार-बार उत्तर प्रदेश क्यों आ रहे हैं पीएम मोदी?
Post Write By-UpendraArya

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को लखनऊ का दो दिवसीय दौरा पूरा किया. इससे ठीक पहले वो पांच दिवसीय विदेश यात्रा से लौटे थे.
पिछले एक महीने में मोदी कुल पांच बार उत्तर प्रदेश की यात्रा कर चुके हैं. प्रधानमंत्री वाराणसी से ही सांसद भी हैं लेकिन आगामी  चुनाव और उत्तर प्रदेश में विपक्षी गठबंधन की संभावना के चलते उनके दौरों के राजनीतिक मायने न निकाले जाएं, ऐसा संभव नहीं.
हालांकि इसके पहले भी उनके यूपी के लगातार दौरे होते रहे हैं लेकिन 28 जून को मगहर से शुरू हुआ यूपी यात्रा का क्रम नोएडा, बनारस, मिर्ज़ापुर, शाहजहांपुर और अब दो दिन में लगातार दो बार लखनऊ आकर थमा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह और योगी आदित्यनाथइमेज कॉपीरइट@NARENDRAMODI/TWITTER

चुनाव के मूड में मोदी!

बताया जा रहा है कि आने वाले दिनों में हर महीने प्रधानमंत्री की कम से कम एक या दो सभाएं यूपी में होंगी. जानकारों का कहना है कि प्रधानमंत्री की इन यात्राओं ने ये साबित कर दिया है कि लोकसभा चुनाव अभी भले दूर हों लेकिन वो चुनावी मूड में आ गए हैं.
प्रधानमंत्री की इन यात्राओं का मक़सद भले ही संतों की समाधि पर जाना या फिर परियोजनाओं का उद्घाटन-शिलान्यास करना रहा हो, लेकिन उनके भाषणों में चुनावी भाषणों का तेवर साफ़ दिखाई देता है. मगहर से लेकर लखनऊ तक में उन्होंने कोई ऐसी सभा नहीं की जिसमें कांग्रेस, सपा और बसपा को और पूर्व में रहीं उनकी सरकारों को आड़े हाथों न लिया हो.
हालांकि भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री की बार-बार हो रही इन यात्राओं को राजनीति से जोड़कर नहीं देखती. पार्टी प्रवक्ता शलभ मणि त्रिपाठी कहते हैं, "यूपी ने बीजेपी को और प्रधानमंत्री को बहुत कुछ दिया है, यहां की जनता उन्हें बार-बार बुलाती है, उनको यहां से लगाव है, इसलिए अक़्सर आते हैं. इसमें राजनीति देखना ठीक नहीं है."
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइकइमेज कॉपीरइटSAMIRATMAJ MISHRA

विपक्षी गठबंधन ने पेश की चुनौती

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 सीटें मिली थीं और दो सीटों पर उसकी सहयोगी अपना दल ने चुनाव जीता था.
पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला था लेकिन उसके बाद हुए तीन लोकसभा उपचुनावों में पार्टी की ज़बर्दस्त हार हुई और इस हार के पीछे सपा-बसपा गठबंधन मुख्य वजह रही है.
वहीं अब इस गठबंधन में कांग्रेस के भी शामिल होने की पूरी संभावना है और जानकारों के मुताबिक गठबंधन की स्थिति में बीजेपी के सामने मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं.
वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान प्रधानमंत्री की लगातार यात्राओं को इसी से जोड़कर देखते हैं, "यूपी में बीजेपी और नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है. उन्हें आगामी चुनाव में 71 सीटें तो वैसे भी नहीं मिलने वाली हैं लेकिन यदि 71 से ये आंकड़ा 30-35 पर भी आ गया तो इनके लिए मुसीबत हो जाएगी. गठबंधन होने की स्थिति में यही होने की पूरी आशंका है. इसलिए प्रधानमंत्री ख़ुद को बार-बार यूपी का दिखाने की कोशिश कर रहे हैं."
नरेंद्र मोदीइमेज कॉपीरइटREUTERS

मोदी के भरोसे बीजेपी

शनिवार और रविवार की दो दिवसीय लखनऊ यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी लखनऊ में रुके नहीं बल्कि वापस दिल्ली चले गए और अगले दिन फिर लखनऊ आए.
हालांकि बताया गया कि पहले उनका लखनऊ में ही रुकने का कार्यक्रम था लेकिन बाद में ये बदल दिया गया.
कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता अखिलेश सिंह ने प्रधानमंत्री के इस कार्यक्रम पर ये कहकर चुटकी ली कि 'उन्हें पता है कि यूपी में ज़्यादा समय देने से कुछ नहीं मिलने वाला.'
प्रधानमंत्री यूपी में भले ही एक महीने के भीतर छह बार आए हों लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे चुनावी राज्यों में भी उनकी ये सक्रियता नहीं दिख रही है. राजनीतिक पर्यवेक्षक इसके पीछे महागठबंधन की संभावना के अलावा उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महत्व और बीजेपी में विकल्पहीनता को देखते हैं.
शरत प्रधान कहते हैं कि बीजेपी में नरेंद्र मोदी ऐसे वटवृक्ष की तरह स्थापित हो गए हैं जिसके नीचे दूसरा कोई आगे बढ़ ही नहीं सकता है. उनके मुताबिक, यही बीजेपी के लिए फ़ायदे वाली भी बात है और नुक़सान वाली भी.
नरेंद्र मोदी के समर्थकइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES

वोटरों को साधने की कोशिश

पिछले एक महीने के भीतर नरेंद्र मोदी के यूपी दौरों पर एक नज़र डालें तो ये सभी कार्यक्रम प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में हुए हैं और इनके ज़रिए उन्होंने आधी से ज़्यादा लोकसभा सीटों को कवर कर लिया है.
यही नहीं, इन यात्राओं के ज़रिए जातीय समीकरणों को भी साधने की ज़बर्दस्त कोशिश की गई है और सरकार की विकास की छवि को गढ़ने और उसे लोगों तक पहुंचाने का भी भरसक प्रयास हो रहा है.
मगहर में मोदी ने जहां दलितों और पिछड़ों को साधने की कोशिश की तो उसके बाद नोएडा में सैमसंग कंपनी का उद्घाटन किया और सरकार की विकास की छवि को पुख़्ता करने की कोशिश की. ये अलग बात है कि इस कंपनी की शुरुआत भी दूसरी योजनाओं की तरह पिछली सरकारों के ही समय में हुई थी.
आज़मगढ़ और मिर्ज़ापुर के ज़रिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के पुराने गढ़ में अपनी पैठ बनाने की कोशिश हुई तो शाहजहांपुर से सीधे समाजवादी परिवार यानी मुलायम-अखिलेश के गढ़ को चुनौती दी गई.
मायावती और अखिलेश यादवइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES/SAMAJWADI PARTY

उपचुनावों ने दिया संकेत

चूंकि पिछले लोकसभा चुनाव में अमेठी-रायबरेली के अलावा इटावा-मैनपुरी का यही इलाक़ा था जहां की चार सीटें बीजेपी के हाथ से निकल गई थीं.
जानकारों का कहना है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी को क़रीब 42 प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन यदि सपा-बसपा-कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाए तो ये बीजेपी से क़रीब आठ प्रतिशत ज़्यादा बैठता है.
वोटों का ये प्रतिशत निश्चित तौर पर सीटों में भी बदलाव लाएगा, ये उपचुनावों से साफ़ हो चुका है.
शरत प्रधान कहते हैं कि ज़ाहिर है, ऐसी स्थिति में पार्टी अपने एकमात्र प्रचारक को लगातार यूपी के दौरे कराती रहेगी ताकि वो हर क़ीमत पर महागठबंधन से लड़ने की स्थिति में रहे.
अखिलेश यादव और राहुल गांधीइमेज कॉपीरइटREUTERS

चुनाव तक इंतज़ार

वहीं दूसरी ओर गठबंधन की स्थिति भी अभी तक स्पष्ट नहीं है.
बताया जा रहा है कि गठबंधन का स्वरूप तो तय हो चुका है लेकिन इसमें शामिल दल रणनीति के तहत इसका एलान अभी नहीं कर रहे हैं. बहुजन समाज पार्टी के एक नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, "सीट बँटवारे का नब्बे प्रतिशत काम हो चुका है लेकिन इसकी घोषणा चुनाव की घोषणा से पहले नहीं होगी. गठबंधन में शामिल पार्टियों को भी ये संकेत दे दिया गया है कि कहां उन्हें लड़ना है और कहां लड़ाना है."
वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान भी मानते हैं कि गठबंधन में शामिल पार्टियां रणनीति के तहत इन बातों को सार्वजनिक नहीं कर रही हैं लेकिन उनके मुताबिक इसके पीछे कुछ और भी कारण हैं, "सपा और बसपा को पता है कि गठबंधन को पर्दे के पीछे रखने में ही अभी भलाई है, अन्यथा उनका भी वही हश्र होगा जो लालू यादव का हुआ. मायावती और मुलायम परिवार के ख़िलाफ़ सीबीआई के पास पर्याप्त सबूत हैं और पिछली सरकार के समय भी इसे लटकाए रखा गया और अभी भी ये मामला अधर में है. तब भी ये इन दलों को कब्ज़े में रखने का हथियार था और आज भी है."
शरत प्रधान कहते हैं कि गठबंधन का एलान शायद तभी हो जब सरकार सीबीआई का इस्तेमाल करने की स्थिति में न हो यानी चुनाव की घोषणा के बाद. बहरहाल, चुनाव अभी दूर हैं और प्रधानमंत्री की हर महीने यूपी में कम से कम एक-दो सभाएं होनी ही हैं.
जानकारों का कहना है कि बीजेपी के लिए यूपी में महागठबंधन तो चुनौती है ही, ज़्यादा यात्राओं के ज़रिए प्रधानमंत्री को यूपी में समेट देना भी विपक्ष की रणनीतिक जीत और बीजेपी की मनोवैज्ञानिक पराजय जैसा साबित होगा.
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